चिकन की कढ़ाई
चिकन लखनऊ की प्रसिद्ध शैली है कढाई और कशीदा कारी की। यह लखनऊ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है और लखनवी ज़रदोज़ी यहाँ का लघु उद्योग है जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढाते हैं। इस उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। यहां के बाज़ार चिकन कशीदाकारी के दुकानों से भरे हुए हैं। मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि ३६ प्रकार के चिकन की शैलियां होती हैं। इसके माहिर एवं प्रसिद्ध कारीगरों में उस्ताद फ़याज़ खां और हसन मिर्ज़ा साहिब थे।
इस हस्तशिल्प उद्योग का एक खास पहलू यह भी है कि उसमें 95 फीसदी महिलाएं हैं। ज्यादातर महिलाएं लखनऊ में गोमती नदी के पार के पुराने इलाकों में बसी हुई हैं। चिकन की कला, अब लखनऊ शहर तक ही सीमित नहीं है अपितु लखनऊ तथा आसपास के अंचलों के गांव-गांव तक फैल गई है।
मुगलकाल से शुरू हुआ चिकनकारी का शानदार सफर सैंकड़ों देशों से होता हुआ आज भी बदस्तूर जारी है। चिकनकारी का एक खूबसूरत आर्ट पीस लंदन के रायल अल्बर्ट म्यूजियम में भी विश्वभर के पर्यटकों को अपनी गाथा सुना रहा है।
परिचय
[संपादित करें]महीन कपड़े पर सुई-धागे से विभिन्न टांकों द्वारा की गई हाथ की कारीगरी लखनऊ की चिकन कला कहलाती है। अपनी विशिष्टता के कारण ही यह कला सैंकड़ों वर्षों से अपनी लोकप्रियता बनाए हुए है। यदि कोई ब्रश और रंगों के सहारे चित्रकारी करे तो इसमें नई बात क्या हुई! लेकिन अगर ब्रश की जगह एक महीन सुई हो और रंगों का काम कच्चे सूत के धागों से लिया जा रहा हो और कैनवास की जगह हो महीन कपड़ा, तो ऐसी चित्रकारी को अनूठी ही कहा जाएगा।
चिकन शब्द फारसी भाषा के चाकिन से बिगड़ कर बना है। चाकिन का अर्थ है- कशीदकारी या बेल-बूटे उभारना। जिस प्रकार मुगलकाल ने भारत की कला, संगीत और संस्कृति को समृद्ध किया और देश को ताजमहल और लालकिले जैसे अनेक इमारतें दीं उसी प्रकार चिकनकारी भी मुगलिया तहजीब की एक अनमोल विरासत है।
कहा जाता है कि मुगल सम्राट जहांगीर की पत्नी नूरजहां इसे ईरान से सीख कर आई थीं और एक दूसरी धारणा यह है कि नूरजहां की एक बांदी बिस्मिल्लाह जब दिल्ली से लखनऊ आई तो उसने इस हुनर का प्रदर्शन किया। नूरजहां ने अपनी बांदी से इसे स्वयं भी सीखा और आगे भी बढ़ाया। नूरजहां ने शादी महलों, इमामबाड़ों की दीवारों पर की गई नक्काशी को कपड़ों पर समेट लेने का पूरा प्रयास किया। नवाबों के जमाने में भी चिकनकारी को खूब बढ़ावा मिला। कई नवाबों ने स्वयं भी चिकन के काम वाले अंगरखे और टोपियां आदि धारण कीं।
चिकनकारी में सुई धागे के अलावा यदि कुछ और प्रयोग होता है तो वह है आंखों की रोशनी और एक उच्चस्तरीय कलात्मकता का बोध। सुई धागों से जन्मे टांकों और जालियों का एक विस्तृत, जटिल किन्तु मोहक संसार है। तरह-तरह के टांकों और जालियों के अलग-अलग नाम हैं, उनकी रचना का एक निश्चित विधान है और उनकी निजी विशिष्टताएं हैं।
लगभग 40 प्रकार के टांके और जालियां होते हैं जैसे- मुर्री, फनदा, कांटा, तेपची, पंखड़ी, लौंग जंजीरा, राहत तथा बंगला जाली, मुंदराजी जाजी, सिद्दौर जाली, बुलबुल चश्म जाली, बखिया आदि। सबसे मुश्किल और कीमती टांका है नुकीली मुर्री। कच्चे सूत के तीन या पांच तारों से बारीक सुई से टांके लगाए जाते हैं। जिस कपड़े पर चिकनकारी की जाती है पहले उस पर बूटा लिखा जाता है। यानि लकड़ी के छापे पर मनचाहे बेलबूटों के नमूने खोद कर इन नमूनों को कच्चे रंगों से कपड़े पर छाप लिया जाता है। इन्हीं नमूनों के आधार पर चिकनकारी करने के बाद इन्हें कुछ खास धोबियों से धुलाया जाता है जो कच्चा रंग हटा देते हैं साथ ही काढ़ी गई कच्चे सूत की कलियों को भी उजला कर देते हैं।